सत्य का बोध व्यक्ति के सामर्थ्य पर निर्भर है
भारत में प्राचीन काल में शिक्षा व्यवस्था बहुत ही सरल और सर्व सुलभ थी। कोई निर्धन व्यक्ति धनाभाव के कारण शिक्षा से वंचित नहीं रहा। छात्र गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। भिक्षाटन से आश्रम कर खर्च चलता था। एक दिन गुरु जी सत्य और असत्य के सन्दर्भ में छात्रों को शिक्षा दे रहे थे। गुरु जी ने छात्रों को बताया की सत्य का बोध व्यक्ति के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। गुरु जी के मुख से ऐसा सुन कर कुछ छात्रों को आश्चर्य हुआ की यह कैसे हो सकता है।
गुरु जी नई फिर समझाते हुए कहा कि सत्य ही ईश्वर है और सत्य बहुत बड़ा तथा व्यापक है। सत्य के बोध के लिए सत्य के व्यापक स्वरुप को जिसने अनुभव नहीं किया वह सत्य के यथार्थ को नहीं जान सकता। छात्रों का संशय अब भी नहीं दूर हुआ।
गुरु जी अब सभी छात्रों को हथिसार में ले गए जहा एक हाथी बंधा था। अब गुरु जी ने चार छात्रों को चुना जिन्हें ज्यादा संशय था, और उनके आँख बंधवा दिए। अब एक एक छात्र से हाथी के शरीर के एक एक भाग का स्पर्श कराया गया। और उनसे पूछा गया कि यह कौन सी वस्तु है।
१) पहले छात्र को हाथी का पूछ स्पर्श कराया गया और पूछा गया की क्या स्पर्श किये हो।
छात्र का उत्तरर तथा ये कोई मोती रस्सी प्रतीत होती है।
२)अब दूसरे छात्र को हाथी का मोटा पैर स्पर्श कराया गया।
पूछने पर दूसरे छात्र ने बताया की वह एक पेड़ के मोटे तने का स्पर्श किया है
३) अब तीसरे छात्र को हाथी का पेट स्पर्श कराया गया और पूछा गया यह क्या है
छात्र का जबाब था ये कोई दीवाल प्रतीत हो रहा है
४) चौथे छात्र को हाथी के कान का स्पर्श कराया गया , छात्र ने हाथी के सुपले जैसे कान को सूर्प( सुपला) समझा।
सभी छात्रों के आंख पर से पट्टी खोल दी गयी। छात्रों का संशय दूर हो गया था। गुरु जी ने छात्रों को समझते हुए कहा की सत्य का यथार्थ बोध नहीं होने से लोग संशय में एक दूसरे से बहस करते हैं। उदहारण के लिए अगर इन चरों छात्रों के आँख पर से पट्टी नहीं खोली गयी होती तो ये हाथी के बारे में अपनी अपनी राय व्यक्त कर एक दूसरे विवाद और तर्क करते।
ईश्वर के बारे में लोगों के अलग मत होंने का कारण भी लोगों का अपना अपना इन्द्रिय सामर्थ्य और बोधगम्यता है। छात्रों अपने को सामर्थ्यवान बनाओ अपने अंदर पात्रता लाओ जिससे सत्य का बोध हो सके।
महाकवि तुलसी दास ने कहा था "नयन विहीन और मुकुर मलीना, राम रूप देखहि किमी दीना " अर्थात
जिसकी दृष्टि कमजोर हो और वह चश्मा भी ऐसा लगा रखा हो जिसके शीशे गंदे हों तो वह सत्य के स्वरुप ईश्वर प्रभु राम को कैसे देख सकता है।
भारत में प्राचीन काल में शिक्षा व्यवस्था बहुत ही सरल और सर्व सुलभ थी। कोई निर्धन व्यक्ति धनाभाव के कारण शिक्षा से वंचित नहीं रहा। छात्र गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। भिक्षाटन से आश्रम कर खर्च चलता था। एक दिन गुरु जी सत्य और असत्य के सन्दर्भ में छात्रों को शिक्षा दे रहे थे। गुरु जी ने छात्रों को बताया की सत्य का बोध व्यक्ति के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। गुरु जी के मुख से ऐसा सुन कर कुछ छात्रों को आश्चर्य हुआ की यह कैसे हो सकता है।
गुरु जी नई फिर समझाते हुए कहा कि सत्य ही ईश्वर है और सत्य बहुत बड़ा तथा व्यापक है। सत्य के बोध के लिए सत्य के व्यापक स्वरुप को जिसने अनुभव नहीं किया वह सत्य के यथार्थ को नहीं जान सकता। छात्रों का संशय अब भी नहीं दूर हुआ।
गुरु जी अब सभी छात्रों को हथिसार में ले गए जहा एक हाथी बंधा था। अब गुरु जी ने चार छात्रों को चुना जिन्हें ज्यादा संशय था, और उनके आँख बंधवा दिए। अब एक एक छात्र से हाथी के शरीर के एक एक भाग का स्पर्श कराया गया। और उनसे पूछा गया कि यह कौन सी वस्तु है।
१) पहले छात्र को हाथी का पूछ स्पर्श कराया गया और पूछा गया की क्या स्पर्श किये हो।
छात्र का उत्तरर तथा ये कोई मोती रस्सी प्रतीत होती है।
२)अब दूसरे छात्र को हाथी का मोटा पैर स्पर्श कराया गया।
पूछने पर दूसरे छात्र ने बताया की वह एक पेड़ के मोटे तने का स्पर्श किया है
३) अब तीसरे छात्र को हाथी का पेट स्पर्श कराया गया और पूछा गया यह क्या है
छात्र का जबाब था ये कोई दीवाल प्रतीत हो रहा है
४) चौथे छात्र को हाथी के कान का स्पर्श कराया गया , छात्र ने हाथी के सुपले जैसे कान को सूर्प( सुपला) समझा।
सभी छात्रों के आंख पर से पट्टी खोल दी गयी। छात्रों का संशय दूर हो गया था। गुरु जी ने छात्रों को समझते हुए कहा की सत्य का यथार्थ बोध नहीं होने से लोग संशय में एक दूसरे से बहस करते हैं। उदहारण के लिए अगर इन चरों छात्रों के आँख पर से पट्टी नहीं खोली गयी होती तो ये हाथी के बारे में अपनी अपनी राय व्यक्त कर एक दूसरे विवाद और तर्क करते।
ईश्वर के बारे में लोगों के अलग मत होंने का कारण भी लोगों का अपना अपना इन्द्रिय सामर्थ्य और बोधगम्यता है। छात्रों अपने को सामर्थ्यवान बनाओ अपने अंदर पात्रता लाओ जिससे सत्य का बोध हो सके।
महाकवि तुलसी दास ने कहा था "नयन विहीन और मुकुर मलीना, राम रूप देखहि किमी दीना " अर्थात
जिसकी दृष्टि कमजोर हो और वह चश्मा भी ऐसा लगा रखा हो जिसके शीशे गंदे हों तो वह सत्य के स्वरुप ईश्वर प्रभु राम को कैसे देख सकता है।
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